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कविता

सत्यकाम

भवानीप्रसाद मिश्र


माता जवाला से

पुत्र सत्यकाम ने

होकर प्रणत पाद–पद्यों में प्रश्न किया–

पुण्ये, पिता है कौन मेरे बताइए ?

कुल के अनुरूप मैं शिक्षा का इक्छुक हूँ

मेरा कुल कौन–सा है माता जताइए,

जिससे अमत हो मत, अश्रुत हो श्रुत, जिससे

जिससे अज्ञात, ज्ञात होता है माता

जिसमें समस्त पुण्य करते हैं निवास सदा,

जिसमें अस्तित्व पाप खोता है माता,

आखान–पाषाण प्राप्त पांसु पिण्ड होता है

जैसे स्वमेव नष्ट भेदनाभिप्राय से

वैसे हो अखंड दुख होते हैं खंड-खंड

जिसमें संसर्ग पाकर अक्षर अकाय से

वैसा आदेश इष्ट गुरुकुल में पाना है,

मुझको उद्गीथ–रूप प्राण–गान गाना है,

मैं हूँ किंगोत्र माता मुझको बताइए,

मुझको जताइए है मेरे पिता कौन ?

माता जवाला मौन

उसके शांत मुख पर लज्जा की लाली

और कष्ट की घटा–सी आयी,

किंतु क्षण दूजे ही मंगल–प्रदाता एक,

सर्वसंकोचहारी आशा की उजेली छायी

धैर्य से उठाकर आंखे,

गौरव को निहारा अपने

उनको लगा कि

सत्य होने पर हुए हैं सपने

स्निग्ध शांत सत्यकाम,

बोले फिर धीरे से –

“माता कहूँगा क्या,

चुप ही रहूँगा क्या

हरिद्रुमान गुरु गौतम जब

पूछेंगे पिता का नाम ! ”

उत्तर में वैसे ही,

सत्यकाम जैसी ही, गुंजी गिरा –

“हे वत्स, तेरा कल्याण हो

गुरु की कृपा से तुझे

मेरे हे, आशेष पुण्य

ऐसा ही अश्रुत–पूर्ण सम्यक ध्यान हो;

जैसे लवण से स्वर्ण स्वर्ण

स्वर्ण से रजत–मय कंकण

अथवा रजत से जैसे

त्रपु का सफल हो टंकण

वैसे मुझ दीना के,

अभागिन कर्म–हीना के,

तेरे रस–संज्ञक ओज तेज के प्रश्न से,

यज्ञावरिष्ट का प्रतिसंविधान है”

साहस समेट फिर से,

माता ज्वाला बोली –

“वत्स हे, निवेदन करना,

गुरु से कमल का जन्म;

मैं हूँ नितांत हीन,

जाने किसी पुणे से

मुझमें हुआ है पुत्र

तुझसे विमल का जन्म;

योवन में सेवा करके

जीवन बिताया मैंने,

सेवा के दिनों से सौम्य

तुझको उठा पाया मैंने

मैं भी नहीं जानती

तेरा कुल–शील हे,

शोभन सुनील हे।

मैं हूँ ज्वाला

और तू है जाबालि मेरा !”

माता ने इतना कहा

कहकर आकाश हेरा,

स्नेह–भरित आंखों से

सजल सिक्त पाँखो से

सत्यकाम नत हुए

श्रद्धा प्रणत हुए।

हवनाग्निक पूजने को

जैसे यज्ञ–दीप पहुंचे,

हरिद्रुमान गुरु गौतम समीप पहुंचे,

वैसे ही समित्पाणि

स्वर्ण–देह सतकाम,

गुरु के पुण्य चरणों में

झुककर किया प्रणाम,

बोले “भगवान मैं सन्निधि में आया हूँ

आप मुझे ग्रहण करें

अपने शिष्य भाव से

ब्रह्चर्य–वास हेतु

समिध–भार लाया हूँ,

जिससे मत हो मत

अश्रुत हो श्रुत

जिससे अज्ञात

ज्ञात होता है प्रभु हे ,

जिसमें समस्त पुण्य

करते हैं निवास सदा

जिसमें अस्तित्व

पाप खोता है प्रभु है,

वैसा आदेश इष्ट

मुझको प्रभु कीजिए

मुझको उद्गीथरूप

प्राण-दान दीजिए।”

गुरु ने कहा, “है सौम्य,

ब्रह्म–ज्ञान दीक्षा का

केवल अधिकार है

ब्राह्मण सगोत्र को,

तुम हो किंगोत्र वत्स ?

तुमसे हुआ है धन्य

कौन–से कृती का कुल ?”

शांत था तपोवन सांध्य सूर्य की मरीचियों में

हौले से हिलायी गयी सरयू की विचियों में

इंगुदी पलाश–शाल मौन खड़े थे चुपके

चंचल हवा के प्राण उन पर पड़े थे चुपके

कितनी प्रसन्न कलियाँ कितने सहास फूल

भूले हुए थे उस क्षण अपनी सदा की झुल

कितने अबाध्य–लोल मृग–दल प्रशांत थे,

काकली विहीन कीड़ नीड़ों में श्रांत थे,

शांत-चित सतनाम

चरणों में नत हुए

श्रध्या प्रणत हुए

बोले “हे देव, में हूँ अनुचर तव सतकाम

मेरे पिता का नाम मुझको अज्ञात है,

माता से पूछा था आने के पहिले मैंने

उसने जो बताया

प्रभु है, मुझको वही है याद–

“यौवन में सेवा करके

जीवन बिताया मैंने,

सेवा के दिनों में सौम्य

तुझको था पाया मैंने,

मैं भी नहीं जानती–

तेरा कुल शील हे,

मैं हूँ ज्वाला और तू है जावलि मेरा !”

गुरु के हृदय में एक पीड़ा–सी

उमड़ती आयी,

किंतु क्षण दूजे ही

मंगल–प्रदाता एक

स्नेह की घटा–सी छायी

स्नेह भरित आंखों से,

सजल सिक्त पाँखों से,

गुरु ने लगाया गले,

सरल सत्यकाम को;

बोले, निष्पाप है,

निश्चय ही सुपुत्र हो तुम,

सत्य–कुल जात हो,

वत्स तुम ब्राह्मण हो।

ब्रह्म ज्ञान–विद्या का,

तुझको अधिकार है,

सौम्य, शिष्य भाव तेरा,

मुझको स्वीकार है।”


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